Tuesday, September 8, 2020

भगवत गीता अध्याय- 2

 पहले अध्याय में गीता में कहे हुए उद्देश्यों की प्रस्तावना रूप दोनों सेनाओं के महारथियों की तथा संघ को धनी पूर्वक अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा रखने की बात कही गई बाद में दोनों सेनाओं में खड़े अपने कुटुंबी और स्वजनों को देखकर होकर मुंह के कारण अर्जुन युद्ध करने से रुक गया और उसे छोड़कर विवाद करने बैठ गया यह बात कह कर उसे दिया की समाप्ति के बाद में भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें इस प्रकार फिर से युद्ध के लिए तैयार किया यह सब बताना आवश्यक होने से संजय अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए दूसरा अध्याय प्रारंभ होता है।

संजय बोलेः उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसूओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने ये वचन कहा।

श्री भगवान बोलेः हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है |इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती | हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो।

अर्जुन बोलेः हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ।ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में एक भीख मांग कर खाना अच्छा है। भले ही वह सांसारिक लाभ के इच्छुक हो किंतु है, तो गुरुजन ही यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोगय प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी हम यह भी नहीं जानते हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है उनको जीतना या उनके ज्यादा जीते जाना। यदि हम  राष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है फिर भी वह युद्ध भूमि में वे हमारे समक्ष खड़े हैं। अब मैं अपनी कृपण दुरबलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूंँ। और सारा धैर्य खो चुका हूंँ। ऐसी अवस्था मैं आपसे पूछ रहा हूं जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएं ।अब मैं आपका शिष्य हूंँ, और आपका शरणागत हूँँ कृपया मुझे उपदेश दे मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवता के आधिपत्य की तरह  इस धन-धान्य से सारी पृथ्वी पर निष्कण्टकरा ज्य प्राप्त करके भी इस शोक को दूर नहीं कर सकूंगा।

संजय बोलेः हे राजन ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविन्द भगवान से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये |

हे भारतवंशी धृतराष्ट्र दोनों सेनाओं के मध्य शोक मगन  अर्जुन से हंसते हुए यह शब्द कहे।

श्री भगवान ने कहा तुम पांडित्य पूर्ण करते हुए उनके लिए सो कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं वे ना तो जीवित के लिए ना ही मृत के लिए शोक करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ या मैं ना रहा हूंँ या तुम ना रहे हो अथवा यह समस्त राजा ना ऐसा है, भविष्य मे हम लोग नहीं रहेंगे। जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से करुणा अवस्था में और फिर वृद्धा अवस्था में निरंतर अग्रसर होता रहता है। उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर पर चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता है। हे कुंती पुत्र सुख तथा दुख का क्षणिक उदय काल क्रम में उनका अंतर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओ के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी वे इंद्रीय बोध से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखें। हे पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन जो व्यक्ति  सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है। वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है। तत्वदर्शी ने यह निष्कर्ष निकाला है, असत् वस्तु की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है किंतु सत्य प्रवचन ही रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्यन द्वारा यह निष्कर्ष से निकाला है। जो सारे शरीर में व्याप्त है उससे ही तुम अविनाशी समझो उस आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समथय नहीं है ।अविनाशी अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अंत अवश्य संभावी है। अतः भरतवंशी युद्ध करो। जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो उसे मरा हुआ समझता है वह दोनों ही अज्ञानी है। क्योंकि आत्मा ना तो मरता है ना मारा जाता है। आत्मा के लिए किसी काल में जन्म है ना मृत्यु। वह ना कभी  जन्मा है ना जन्म लेगा।

  के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता। हे पार्थ जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी अजन्मा अविनाशी शाश्वत है। वह भला किसी को कैसे मार सकता है। या मरवा सकता है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को तयाग कर नये वस्त्र को धारण करता है उसी प्रकार आत्मा पुराने  के शरीर को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है। 

या आत्मा ना कभी किसी शास्त्र द्वारा खंड खंड किया जा सकता है। ना अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, ना जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इससे ना तो जलाया जा सकता है ना सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत सर्वव्यापी अविकारी स्थिति तथा सदैव एक साथ रहने वाला हैै। यह आत्मा अव्यक्त अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए। किंतु तुम यह सोचते हो कि आत्मा अथवा जीवन का लक्षण सदैव जन्म लेता है तथा सदैैव मरता है तो भी हे महाबाहु तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है। जिसने जन्म लिया है। उसकी मृत्यु निश्चित है। और मृत्यु के पश्चात पुनः जन्म भी निश्चित है। अतः अपने परिहार्य कर्तव्य पालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। सारे जीव प्रारंभ में व्यस्त रहते हैं। मध्य अवस्था में व्यस्त रहते हैं और नष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते है। अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है। कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है। कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है। तथा कोई आश्चर्य की तरह सुनता है। किंतु कोई कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते।

हे भारतवंशी शरीर में रहने वाले का कभी वध नहीं किया जा सकता। अतः तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। क्षत्रीय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का पर विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हे पार्थ! वे क्षत्रीय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं। जिससे उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। किन्तु यदि तुम युद्ध करने की धर्म को संपन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की अपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में अपना यश खो दोगे। लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सममानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मतयु से भी बढ़कर है। जिन जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है। वह सोचेंगे तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह तुम्हें तुच्छ मानेंगे। तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे। तुम्हारे लिए इससे दुखदाई और क्या हो सकता है। हे कुंती पुत्र तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे यदि तुम जीत जाओगे पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अतः दृढ़ संकल्प करके खड़े हो और युद्ध करो तुम सुख-दुख हानि या लाभ, विजय तथा पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा यहां मैंने यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गयी। अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूंँ उसे सुनो हे प्रथा पुत्र तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो कर्म के बंधन से अपने आप को मुक्त कर सकते हो इस प्रयास में ना तो हानि होती है ना रास अतः इस मार्ग पर की गई और अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा करती है। जो इस मार्ग पर चलते हैं वह प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष्य भी एक होता है।

हे अर्जुन ! जो दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं है उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। अल्प ज्ञानी मनुष्य वेदों के अलंकार शब्द के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं जो स्वर्ग की प्राप्ति अच्छे जन्म शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की स्तुति करते हैं। इंद्रियों की तृप्ति ऐश्वर्य की अभिलाषा रखने के कारण वे कहते हैं इससे बढ़कर और कुछ नहीं है जो लोग इंद्रीय भोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त से ऐसी वस्तुओं से मोह ग्रस्त हो जाते हैं उनके मन में भगवान के भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता। वेदों में मुख्यता प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो समस्त दायित्वों और लाभ और सुरक्षा की चिंताओं से मुक्त होकर आत्म परायण बनो। एक छोटे से कूब का कार्य एक विशाल जलाशय इससे तुरंत पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आंतरिक तात्पर्य जानने वाले लोगों को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। तुम्हें अपने कर्म करने का अधिकार है किंतु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो तुम ना तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फलों का करता मानो ना ही कभी कर्म ना करने में आसक्त हो। हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आशक्ति को त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो ऐसी क्षमता योग कहलाती है। हे धनंजय यह जान लो भक्ति के द्वारा समस्त 

 कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान की शरण ग्रहण करो जो व्यक्ति अपने समान कर्म फलो को भोगना चाहते हैं । वे कृपण है । भक्ति में संलग्न मनुष्य जीवन में अच्छी तरह बुरे कार्य से अपने आप को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य कौशल यही है। इस तरह भगवत भक्ति में लगे रहकर बड़े-बड़े ऋषि मुनि अथवा भक्तगण अपने आप को इस भौतिक संस्कार से कर्मों के फलों से मुक्त कर लेते हैं।

इस प्रकार इस प्रकार व जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जो समस्त दुखों से परे है। जब तुम्हारी बुद्धि  मोह रूपी सधन वन को पार कर जाएगी तो तुम सुनने योग्य तथा सब के प्रति अन्य मनष्क हो जाओगे जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकार में भाषाओं से विचलित ना हो और आत्म साक्षात्कार समाधि में स्थित हो जाए तब तुम्हें दिव्य चेतना प्राप्त हो जाएगी



अर्जुन ने कहा है हे कषण अध्यात्म मे लीन चेतना वाले व्यक्ति के क्या लक्षण है वह कैसे बोलता है, तथा उसकी भाषा क्या है । वह किस तरह बैठता तथा चलता है। श्री भगवान ने कहा!  हे पार्थ जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इंद्रिय तृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में में आनंद प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

 जो त्रेयतापो के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता जो आसक्ति भय तथा क्रोध से मुक्त वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है।

इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति शुभ की प्राप्ति हर्षित होता है और ना अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है। जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने इंद्रिय को इंद्रिय विषयों से खींच लेता है वह पूर्ण चेतना में दृढ़ता पूर्वक स्थित होता है। देहधारी जीव इद्रीय भोग से ही निवृत्त हो जाएं पर उसमें इंद्रिय भोगो की इच्छा बनी रहती है लेकिन 

प्रथम वर्ष के अनुभव होने से ऐसे कार्य को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।

हे अजुन! इंद्रिया इतनी 




इंद्रिय विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमें आसति उत्पन्न  हो जाती है। और ऐसे ही आसति से काम उत्पन्न होता है और के काम से कोध्र प्रकट होता है। कोध्र से पूर्ण मोह प्रकट होता है मुंह से स्मरण शक्ति का है विघम हो जाता है। जब समरण शक्ति भमिट हो जाती है तो बुद्धि नष्ट हो जाती है। और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव कूप में पुनः गिर जाता है। किंतु राग तथा  देश से मुक्त एवं अपनी इंद्रियों को स्वयं द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार कृष्ण भावना में मृत व्यक्ति के लिए संसार के तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं। और ऐसी स्थिति में होने पर उसकी बुद्धि से शीघ्र स्थित हो जाती है।

जो कष्ण भावना में परमेश्वर से संबंधित नहीं है उनकी ना तो बुद्धि दिव्य होती है ना ही मन स्थिर होता है। जिसके बिना शांति की कोई संभावना नहीं है शांति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचंड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार विचरणशील इंद्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरंतर लगा रहता है मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है। जिस पुरुष की इंद्रियां अपने-अपने विषयों में सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में है। उसी की बुद्धि निसंदेह स्थित है जो सब जीवो के लिए रात्रि है वह आत्म संयमी के लिए जागने का समय है। और जो समस्त जीवो के जागने का समय है वह आत्म निरीक्षण मुनि के लिए रात्रि है जो पुरुष समुद्र में निरंतर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरंतर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थित रहता है वही शांति प्राप्त कर सकता है वह नहीं जो ऐसे इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो।

जिस व्यक्ति ने इंद्री तृप्ति के समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है जो इच्छाओं से रहित रहता है जो जिसने सारी ममता त्याग दी है, तथा अहंकार से रहित है वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है यह आध्यात्मिक तथा ईश्वर्य जीवन का पथ है जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता यदि कोई जीवन के अंत समय में इस तरह सिथत हो वह तो वह भगवत धाम में प्रवेश कर सकता है।


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